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कंकाल-अध्याय -२७

कई दिन हो गये, विजय किसी से कुछ बोलता नहीं। समय पर भोजन कर लेता और सो रहता। अधिक समय उसका मकान के पास ही करील की झाड़ियों की टट्टी के भीतर लगे हुए कदम्ब के नीचे बीतता है। वहाँ बैठकर वह कभी उपन्यास पढ़ता और कभी हारमोनियम बजाता है। अँधेरा हो गया था, वह कदम्ब के नीचे बैठा हारमोनियम बजा रहा था। चंचल घण्टी चली आयी। उसने कहा, 'बाबूजी आप तो बड़ा अच्छा हारमोनियम बजाते है।' पास ही बैठ गयी। 'तुम कुछ गाना जानती हो?' 'ब्रजवासिनी और कुछ चाहे ना जाने, किन्तु फाग गाना तो उसी के हिस्से का है।' 'अच्छा तो कुछ गाओ, देखूँ मैं बजा सकता हूँ ब्रजबाला घण्टी एक गीत सुनाने लगी- 'पिया के हिया में परी है गाँठ मैं कौन जतन से खोलूँ सब सखियाँ मिलि फाग मनावत मै बावरी-सी डोलूँ! अब की फागुन पिया भये निरमोहिया मैं बैठी विष घोलूँ। पिया के-' दिल खोलकर उसने गाया। मादकता थी उसके लहरीले कण्ठ स्वर में, और व्याकुलता थी। विजय की परदों पर दौड़ने वाली उँगलियों में! वे दोनों तन्मय थे। उसी तरह से गाता हुआ मंगल-धार्मिक मंगल-भी, उस हृदय द्रावक संगीत से विमुग्ध होकर खड़ा हो गया। एक बार उसे भ्रम हुआ, यमुना तो नहीं है। वह भीतर चला गया। देखते ही चंचल घण्टी हँस पड़ी! बोली, 'आइए ब्रह्मचारीजी!' विजय ने कहा, 'बैठोगे या घर के भीतर चलूँ?' 'नही विजय! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। घण्टी, तुम घर जा रही हो न!' विजय ने सहमते हुए पूछा, 'क्या कहना चाहते हो?' 'तुम इस लड़की को साथ लेकर इस स्वतन्त्रता से क्यों बदनाम हुआ चाहते हो?' 'यद्यपि मैं इसका उत्तर देने को बाध्य नहीं मंगल, एक बात मैं भी तुमसे पूछना चाहता हूँ-बताओ तो, मैं यमुना के साथ भी एकान्त में रहता हूँ, तब तुमको सन्देह क्यों नहीं होता!' 'मुझे उसके चरित्र पर विश्वास है।' 'इसलिए कि तुम उसे भीतर से प्रेम करते हो! अच्छा, यदि मैं घण्टी से ब्याह करना चाहूँ, तो तुम पुरोहित बनोगे?' 'विजय तुम अतिवादी हो, उदात्त हो!' 'अच्छा हुआ कि मैं वैसा संयतभाषी कपटाचारी नहीं हूँ, जो अपने चरित्र की दुर्बलता के कारण मित्र से भी मिलने में संकोच करता है। मेरे यहाँ प्रायः तुम्हारे न आने का यही कारण है कि तुम यमुना की...' 'चुप रहो विजय! उच्छृंखलता की भी एक सीमा होती है।' 'अच्छा जाने दो। घण्टी के चरित्र पर विश्वास नहीं, तो क्या समाज और धर्म का यह कर्तव्य नहीं कि उसे किसी प्रकार अवलम्ब दिया जाये, उसका पथ सरल कर दिया जाये यदि मैं घण्टी से ब्याह करूँ तो तुम पुरोहित बनोगे बोलो, मैं इसे करके पाप करूँगा या पुण्य?' 'यह पाप हो या पुण्य, तुम्हारे लिए हानिकारक होगा।' 'मैं हानि उठाकर भी समाज के एक व्यक्ति का कल्याण कर सकूँ तो क्या पाप करूँगा उत्तर दो, देखें तुम्हारा धर्म क्या व्यवस्था देता है।' विजय अपनी निश्चित विजय से फूल रहा था। 'वह वृंदावन की एक कुख्यात बाल-विधवा है, विजय।' सहज में पच आने वाला धीरे से गले उतर जाने वाला स्निग्ध पदार्थ सभी आत्मसात् कर लेते हैं। किन्तु कुछ त्याग-सो भी अपनी महत्ता का त्याग-जब धर्म के आदर्श ने नहीं, तब तुम्हारे धर्म को मैं क्या कहूँ, मंगल।' 'विजय! मैं तुम्हारा इतना अनिष्ट नहीं देख सकता। इसे त्याग तुम भले ही समझ लो; पर इसमें क्या तुम्हारी दुर्बलता का स्वार्थपूर्ण अंश नहीं है। मैं यह मान भी लूँ कि विधवा से ब्याह करके तुम एक धर्म सम्पादित करते हो, तब भी घण्टी जैसी लड़की से तुमको जीवन से जिए परिण्य सूत्र बाँधने के लिए मैं एक मित्र के नाते प्रस्तुत नहीं।' 'अच्छा मंगल! तुम मेरे शुभचिन्तक हो; यदि मैं यमुना से ब्याह करूँ? वह तो...' 'तुम पिशाच हो!' कहते हुए मंगल उठकर चला गया। विजय ने क्रूर हँसी हँसकर अपने आप कहा, 'पकड़े गये ठिकाने पर!' वह भीतर चला गया। दिन बीत रहे थे। होली पास आती जाती थी। विजय का यौवन उच्छृंखल भाव से बढ़ रहा था। उसे ब्रज की रहस्यमयी भूमि का वातावरण और भी जटिल बना रहा था। यमुना उससे डरने लगी। वह कभी-कभी मदिरा पीकर एक बार ही चुप हो जाता। गम्भीर होकर दिन-ब-दिन बिता दिया करता। घण्टी आकर उसमें सजीवता ले आने का प्रयत्न करती; परन्तु वैसे ही जैसे एक खँडहर की किसी भग्न प्राचीर पर बैठा हुआ पपीहा कभी बोल दे! फाल्गुन के शुक्लपक्ष की एकादशी थी। घर के पास वाले कदम्ब के नीचे विजय बैठा था। चाँदनी खिल रही थी। हारमोनियम, बोतल और गिलास पास ही थे। विजय कभी-कभी एक-दो घूँट पी लेता और कभी हारमोनियम में एक तान निकाल लेता। बहुत विलम्ब हो गया था। खिड़की में से यमुना चुपचाप यह दृश्य देख रही थी। उसे अपने हरद्वार के दिन स्मरण हो आये। निरभ्र गगन में चलती हुई चाँदनी-गंगा के वक्ष पर लोटती हुई चाँदनी-कानन की हरियाली में हरी-भरी चाँदनी! और स्मरण हो रही थी। मंगल के प्रणय की पीयूष वर्षिणी चन्द्रिका एक ऐसी ही चाँदनी रात थी। जंगल की उस छोटी कोठरी में धवल मधुर आलोक फैल रहा था। तारा लेटी थी, उसकी लटें तकिया पर बिखर गयी थीं, मंगल उस कुन्तल-स्तवक को मुट्ठी में लेकर सूँघ रहा था। तृप्ति थी किन्तु उस तृप्ति को स्थिर रखने के लिए लालच का अन्त न था। चाँदनी खिसकती जाती थी। चन्द्रमा उस शीतल आलिंगन को देखकर लज्जित होकर भाग रहा था। मकरन्द से लदा हुआ मारुत चन्द्रिका-चूर्ण के साथ सौरभ राशि बिखेर देता था।

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